Saturday, April 26, 2008

जो जीता वही सिकंदर

जो जीता वही सिकंदर

मुझे पहली बार लडके-लडकी वाला प्यार छह साल की उम्र में ही हो गया था. हमारे गाँव की दो लडकियों से. जी हाँ, एक साथ दो-दो लडकियों से. दोनों ही मेरी क्लास में पढती थीं.
चूँकि इन तीस साल में हम तीनों शादीशुदा हो चुके है और हमारे बच्चे भी प्यार करने की उम्र के हो चुके हैं मैं अपने पहले प्यार को मधु और सुधा के नाम से पुकारूँगा. ऐसा करने से न उनके पतियों को, न मेरी पत्नी को और न ही हमारे बच्चों को हमारे उस निर्मल्, निश्छल पहले प्यार पर कीचड उछालने का मौका मिलेगा.
मधु, सुधा और मैं साथ-साथ स्कूल जाते थे, क्लास में पास-पास बैठते थे, और स्कूल छूटने के बाद साथ ही घर लौटते थे. मधु और सुधा के साथ खेलने का सिर्फ मुझे ही अधिकार था. मजाल है कि कोई दूसरा लडका उनके साथ खेलने की जुर्रत करे. वैसे ही किसी तीसरी लडकी को मेरे साथ खेलने का अधिकार मधु और सुधा ने नहीं दे रखा था.
मगर मधु और सुधा के बीच मुझे लेकर कोई विवाद नहीं था. विवाद की कोई गुंजाइश भी नहीं थी. मेरी नजर में दोनों का महत्व समान था, भूमिकाएं अलग-अलग थीं. हम रोज घरौंदा खेलते थे. मधु मेरी घरवाली बनती थी, तो सुधा मेरी प्रेमिका. किसी दिन जब सुधा को घरवाली बनने का मन करता था तो मधु प्रेमिका बन जाती थी. यह सिलसिला दो साल तक बिना किसी तकरार के चला. फिर पिताजी गाँव छोडकर शहर आ गए.
शहर की स्कूल में मैं वर्षा का दीवाना बन गया. मैं थोडा सयाना हो गया था, जितना कि किसी दस साल के लडके को होना चाहिए उतना. शहर आने के बाद पहली बार सिनेमा देखा, कौन सी फिल्म थी यह तो याद नहीं. इतना जरूर याद है कि एक पुरुष और स्त्री हर दस-पंद्रह मिनट में बांहों में बांहें डाल कर गाते और नाचते थे. मुझे फिल्म की नायिका की सूरत कुछ-कुछ वर्षा जैसी नजर आई. वर्षा भी उस हिरोइन की तरह दो चोटी रखती थी. बात करते समय उस हिरोइन की तरह आंखें भी मटकाती थी.
मैंने भी फिल्म से प्रेरित हो कर हीरो की स्टाइल में अपने बाल संवारने शुरू कर दिए. सामने की जुल्फों को गुब्बारे की तरह फुलाने के बाद मुझे यकीन होने लगा कि मेरी सूरत भी उस हीरो जैसी नजर आती है. (जब एक दिन वर्षा ने भी मेरी हेयर स्टाइल की तारीफ की तो मुझे पूरा विश्वास हो गया कि मैं सचमुच हीरो जैसा दिखता हूँ.)
वर्षा का घर स्कूल के रास्ते में पडता था. मैं रोज शाम वर्षा के घर होमवर्क पूरा करने के बहाने चला जाता था. उसके पडोस में हमारी ही क्लास का एक लडका दिनेश रहता था. दिनेश मुझसे लंबा-तगडा तो था ही, स्कूल की क्रिकेट टीम का कप्तान भी था.
प्राय: रोज वर्षा के घर जाते समय मुझे दिनेश गली के नुक्कड पर दूसरे लडकों के साथ क्रिकेट या गुल्ली-डंडा खेलते हुए दिख जाता था. वैसे दिनेश ने मुझे कभी कुछ कहा तो नहीं, लेकिन उसकी आंखें हर बार गुर्रा कर मुझे दो-दो हाथ कर लेने के लिए ललकारती थीं. मैं नजरें झुकाकर चुपचाप आगे बढ लेता था.
एक रोज जब मैं वर्षा के घर की ओर जा रहा था कि अचानक मेरी पीठ पर कोडे जैसी मार लगी. मैं दर्द के मारे चीख पडा. पीठ पर मानों जलता हुआ कोयला दागा हो, ऐसी जलन हो रही थी. मैं ने पीछे मुडकर देखा तो मुहल्ले के छोकरे खी-खी कर हँस रहे थे. मेरे कुछ दूर रबर की एक गेंद पडी हुई थी. दिनेश हाथ में क्रिकेट का बल्ला लिए विकेट के पास खडा ठहाके लगा रहा था.
उसके लगाए फटके से ही वह गेंद मेरी पीठ पर गोली की तरह आ लगी थी. मैं तिलमिला गया. लेकिन चुपचाप खून के घूँट पी गया. और कर भी क्या सकता था? थोडा आगे चल कर, इस बात से आश्वस्त हो कर कि कोई नहीं देख रहा, मैंने अपने आँसू कमीज की बाँह से पोछ डाले.
मैं वर्षा के घर आ पहुँचा. होमवर्क पूरा कर मैंने वर्षा को यह कह कर अपने साथ मेरे घर चलने को कहा कि आज माँ ने आईसक्रीम बनाई है. वर्षा खुशी के मारे झूम उठी और झटपट कपडे बदल कर मेरे साथ निकल पडी.
नुक्कड के करीब पहुँचने पर मैंने वर्षा का हाथ अपने हाथ में थाम लिया. उसने मेरी ओर देखा और मुस्कुराने लगी. वह मेरे और पास आ गई. हम दोनों यूँ ही हाथ में हाथ फँसा कर चलने लगे.
नुक्कड पर दिनेश कुछ छोकरों के साथ खडा था. मैंने दिनेश की आंखों में आंखे गडा दीं. इस बार दिनेश ने चुपचाप अपनी नजरें झुका लीं, एक हारे हुए खिलाडी की तरह्.

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